नहीं होना चाहती
मैं पौधा छुईमुई का
कि कोई भी बंद कर दे
मुझे मेरे वजूद में
हो जाना चाहती हूँ
कैक्टस की तरह
छुअन का ख़याल भी
न कर सके कोई
जब तक रहूँ
जो हूँ रहूँ
कि सख्त चुभते
कैक्टस पर भी
खिलते हैं कोमल फूल
हो जाना चाहती हूँ दुनिया की तरह सख्त
बन जाना चाहती हूँ
एक अदद कैक्ट्स !
नहीं होना चाहती !
Filed under कविता
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sundar
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सुन्दर बदलाव कोमल सोच का …..बहुत खूब ….बधाई ,
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क्षमा शोभती उस भुजंग(सांप) को जिसके पास गरल(विष) हो,
उसे क्या जो विनम्र, विषरहित, विनीत, सरल हो|
बहुत खूब, इंदु जी|
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