चुप्पी बयाँ भी होती है
और जज़्ब भी
चीखें गूंगी भी होती हैं
अद्रश्य भी
निर्भर करता है कि
चुप्पी कहाँ है और
चीखें किसकी .
ख़ामोश चीखों की असहनीय आवाज़
तार – तार करती है
समाज को
मूक बन निहारते हैं सब
कभी चुप्पी कभी
चीखों को
जारी है ये क्रम
सदियों से …
चुप्पी
Filed under कविता
चुप्पी …..कभी -कभी सुख देती है …..इंदु जी उम्दा अभिव्यक्ति
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इन्दु जी
बहुत सुंदर रचना….
कभी पधारिए हमारे ब्लॉग पर भी…..
नयी रचना
“एहसासों के “जनरल डायर”
आभार
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बहुत ही ख़ूबसूरती के भाव दिए हैं आपने चुप्पी को अति सुंदर रचना……. बस एक बात हैं इस चुप्पी में कि ,कभी यह चुप नहीं रहती, चिल्लाती हैं खामोशी में गूंगी बन कर ,पर कभी गलत नहीं होती
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बहुत सुंदर
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बेहद सुन्दर कविता इंदु जी
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Achha likha hai aap ne. Sundar.
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