चुप्पी


चुप्पी बयाँ भी होती है
और जज़्ब भी
चीखें गूंगी भी होती हैं
अद्रश्य भी
निर्भर करता है कि
चुप्पी कहाँ है और
चीखें किसकी .
ख़ामोश चीखों की असहनीय आवाज़
तार – तार करती है
समाज को
मूक बन निहारते हैं सब
कभी चुप्पी कभी
चीखों को
जारी है ये क्रम
सदियों से …

6 टिप्पणियां

Filed under कविता

6 responses to “चुप्पी

  1. sanjay joshisajag

    चुप्पी …..कभी -कभी सुख देती है …..इंदु जी उम्दा अभिव्यक्ति

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  2. इन्दु जी
    बहुत सुंदर रचना….
    कभी पधारिए हमारे ब्लॉग पर भी…..
    नयी रचना
    “एहसासों के “जनरल डायर”
    आभार

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  3. Suneel

    बहुत ही ख़ूबसूरती के भाव दिए हैं आपने चुप्पी को अति सुंदर रचना……. बस एक बात हैं इस चुप्पी में कि ,कभी यह चुप नहीं रहती, चिल्लाती हैं खामोशी में गूंगी बन कर ,पर कभी गलत नहीं होती

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  4. बेहद सुन्दर कविता इंदु जी

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