माँ तुम्हारी नम आँखें
बहा देती हैं
पूरा जहाँ मेरा
तुम्हारी इक मुस्कान
उड़ने को दे देती है
मुझे पूरा जहाँ
तुम्हारे चेहरे की शिकन
और मंथन
घनघोर अँधेरे में भी
चीर देती है मुझे
नज़र आता है फिर
उसी में
जीवन दर्पण
खोजती हूँ खुद को
तेरी साँसों में
जानती हूँ जबकि
तेरी रूह हूँ मैं
माँ… तुम हो तो हूँ मै ….
तुम हो तो ही मै …!!!
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माँ !!!
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फ़लक पे चाँद
फ़लक पे लटका चाँद
चिढ़ाता नहीं
बल्कि लटका है वो
कई – कई फंदों में
झूल रहा है
पूर्णिमा से अमावास
इसलिए नहीं
कि उसे पसंद है
बल्कि हवा का दबाव
ही बहुत कम है
इतना कम
कि लटकते फंदों में भी
नहीं निकल रहा
उसका दम
जबकि चाहता है
वो मुक्ति
इस घुटन से
कि फ़लक पे लटकता
चाँद गुज़रता है
हर नज़र से …
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ऐसी रचना ! क्या ज़रूरी है ?
हाँ जान लो सब भेद
तुम मेरे पहले
फिर करना आघात
कहाँ कितना ज़रूरी है।
नाप-तौल काँट -छाँट
जानते हो खूब
हर चोट करना फिर
जहाँ जितनी ज़रूरी है।
जब-जब भी उबरें हम
रखना तुम नज़र पैनी
करना फिर धमाका कोई
कि धमाका तो ज़रूरी है।
फितरतों का आदी है
तू न बदलेगा कभी
पहन मुखौटों को सदा,
कि मुखौटा बहुत ज़रूरी है।
तू भूल गया शायद
है तुझसे भी ऊपर कोई
निस्तब्ध अपनी रचना पर
ऐसी रचना ! क्या ज़रूरी है ?
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