हाँ जान लो सब भेद
तुम मेरे पहले
फिर करना आघात
कहाँ कितना ज़रूरी है।
नाप-तौल काँट -छाँट
जानते हो खूब
हर चोट करना फिर
जहाँ जितनी ज़रूरी है।
जब-जब भी उबरें हम
रखना तुम नज़र पैनी
करना फिर धमाका कोई
कि धमाका तो ज़रूरी है।
फितरतों का आदी है
तू न बदलेगा कभी
पहन मुखौटों को सदा,
कि मुखौटा बहुत ज़रूरी है।
तू भूल गया शायद
है तुझसे भी ऊपर कोई
निस्तब्ध अपनी रचना पर
ऐसी रचना ! क्या ज़रूरी है ?
ऐसी रचना ! क्या ज़रूरी है ?
Filed under कविता
Bahut sunder Rachan…aisi rachan likhna to bahut jaruri hain
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अपना जानो,
और अपनों का सपना जानो।
और शेष क्या जाने हम?
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Bhut pyari kavita hai
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thanks to all
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bahut khoob likha he.
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